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आग

This poem has been written by Aditya Krishna (Batch of 2023). This poem was recited by the poet at a talk by the activist Soni Sori (The Truth of Bastar: Soni Sori Speaks), hosted by the Law and Society Committee at NLSIU, Bangalore on July 18, 2018.

The featured image of this post has been sourced from The Fearless Collective.

वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।

जंगल से, दरिया से, घर से-
सबसे बेघर जब कर डाला,
रोटी की, बेटी-बहनों की-
चिन्ता में पागल कर डाला,
अब मौत भी महँगी लगती है-
हम शाद नहीं है जीने में।
वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।

लोहा-कोयला तुम रखते हो,
साहू का घर भर देते हो-
जन-गण-मन हमको कहते हो,
हमको बेघर कर देते हो,
कड़वी तो ज़हर की है प्याली,
पर आदत सी है पीने में,
वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।

किस दिन फिर कोयल बोलेगी,
नदिया की लहरें गाएँगी,
महुआ की गंध से हो पागल,
कब बस्ती जश्न मनाएगी?
कब इश्क़ आबाद पुनः होगा,
खेतों में गिरे पसीने में?
वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।

Published in Poetry Uncategorized

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