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वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।
जंगल से, दरिया से, घर से-
सबसे बेघर जब कर डाला,
रोटी की, बेटी-बहनों की-
चिन्ता में पागल कर डाला,
अब मौत भी महँगी लगती है-
हम शाद नहीं है जीने में।
वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।
लोहा-कोयला तुम रखते हो,
साहू का घर भर देते हो-
जन-गण-मन हमको कहते हो,
हमको बेघर कर देते हो,
कड़वी तो ज़हर की है प्याली,
पर आदत सी है पीने में,
वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।
किस दिन फिर कोयल बोलेगी,
नदिया की लहरें गाएँगी,
महुआ की गंध से हो पागल,
कब बस्ती जश्न मनाएगी?
कब इश्क़ आबाद पुनः होगा,
खेतों में गिरे पसीने में?
वो चिनगारी सरकारी थी,
जो आग बनी है सीने में।
हर कदम थमती है धड़कन मेरी
हर कदम सहमति है हिम्मत मेरी
हर कदम मुकरती है किस्मत मेरी
हर कदम झपकती है पलके मेरी।
आम है मचलना मेरा इस सफर में
आम है मुकरना किस्मत का सफर में
सफर, जो होता है छोटा इन कदमो से
रास्ता जो बना है इन कदमो से।
ये रास्ता जो जोडें मेरे सफर को मेरी मंज़िल से
उस मंज़िल से, जिसके इंतज़ार में पूरा योवन बीता
जिसके दीदार ने मेरे सफर की थकान को तोडा
जिसके लिए हमने इन कदमो को थमने से रोका।।
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